History

गोरा-बादल : वीरता और शौर्य की अद्भुत कहानी , जिन्होंने अपनी वीरता से खिलजी को उसकी ओकात दिखाई थी

जब जब भारत के इतिहास की बात होती हे तब तब राजपुताना के वीरो के लड़े युद्ध और उनकी वीरता के चर्चे आम होते हे . आज हम आपको भारत के ऐसे ही दो वीर “गौरा-बादल” की वीरता और पराक्रम की सच्ची कथा बताने जा रहे हे।

जो हम सबके लिए प्रेरणा प्रदान करने वाली हे . इतिहास को छू कर आने वाली हवा में एक बार साँस ले कर देखिए, उस हवा में घुली वीरता की महक से आपका सीना गौरवान्वित हो उठेगा. भले ही हममें से कई लोग अपने देश की माटी में सने अपने पूर्वजों के लहू की गंध ना ले पाए हों, किन्तु इतिहास ने आज भी भारत माँ के उन सपूतों की वीर गाथाओं को अपने सीने में सहेज कर रखा है।

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इन्हीं शूरवीरों की वजह से ही हमारी आन-बान और शान आज तक बरकरार है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह गौरव किसी धर्म विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु यह गौरव है हम सम्पूर्ण भारतवासियों का

. गोरा-बादल

गौरा और बादल ऐसे ही दो शूरवीरों के नाम है, जिनके पराक्रम से राजस्थान की मिट्टी बलिदानी है .

जीवन परिचय और इतिहास :

गौरा ओर बदल दोनों चाचा भतीजे जालोर के चौहान वंश से सम्बन्ध रखते थे | मेवाड़ की धरती की गौरवगाथा गोरा और बादल जैसे वीरों के नाम के बिना अधूरी है. हममें से बहुत से लोग होंगे, जिन्होंने इन शूरवीरों का नाम तक न सुना होगा !

मगर मेवाड़ की माटी में आज भी इनके रक्त की लालिमा झलकती है. मुहणोत नैणसी के प्रसिद्ध काव्य ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इन दो वीरों के बारे पुख्ता जानकारी मिलती है. इस काव्य की मानें तो रिश्ते में चाचा और भतीजा लगने वाले ये दो वीर जालौर के चौहान वंश से संबंध रखते थे, जो रानी पद्मिनी की विवाह के बाद चितौड़ के राजा रतन सिंह के राज्य का हिस्सा बन गए थे।

ये दोनों इतने पराक्रमी थे कि दुश्मन उनके नाम से ही कांपते थे. कहा जाता है कि एक तरफ जहां चाचा गोरा दुश्मनों के लिए काल के सामान थे, वहीं दूसरी तरफ उनका भतीजा बादल दुश्मनों के संहार के आगे मृत्यु तक को शून्य समझता था. यहीं कारण था कि मेवाड़ के राजा रतन सिंह ने उन्हें अपनी सेना की बागडोर दे रखी थी।

गौरा-बादल युद्ध

राणा रतनसिंह को खिलजी की कैद से छुड़ाना :

खिलजी की नजर मेवाड़ की राज्य पर थी लेकिन वह युद्ध में राजपूतों को नहीं हरा सका तो उसने कुटनीतिक चाल चली , मित्रता का बहाना बनाकर रावल रतनसिंह को मिलने के लिए बुलाया और धोके से उनको बंदी बना लिया और वहीं से सन्देश भिजवाया कि रावल को तभी आजाद किया जायेगा, जब रानी पद्मिनी उसके पास भजी जाएगी।

इस तरह के धोखे और सन्देश के बाद राजपूत क्रोधित हो उठे, लेकिन रानी पद्मिनी ने धीरज व चतुराई से काम लेने का आग्रह किया। रानी ने गोरा-बादल से मिलकर अलाउद्दीन को उसी तरह जबाब देने की रणनीति अपनाई जैसा अलाउद्दीन ने किया था। रणनीति के तहत खिलजी को सन्देश भिजवाया गया कि रानी आने को तैयार है, पर उसकी दासियाँ भी साथ आएगी।

खिलजी सुनकर आन्दित हो गया। रानी पद्मिनी की पालकियां आई, पर उनमें रानी की जगह वेश बदलकर गोरा बैठा था। दासियों की जगह पालकियों में चुने हुए वीर राजपूत थे। खिलजी के पास सूचना भिजवाई गई कि रानी पहले रावल रत्नसिंह से मिलेंगी। खिलजी ने बेफिक्र होकर अनुमति दे दी। रानी की पालकी जिसमें गोरा बैठा था, रावल रत्नसिंह के तम्बू में भेजी गई।

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अलाउद्दीन खिलजी पर आक्रमण

गोरा ने रत्नसिंह को घोड़े पर बैठा तुरंत रवाना कर और पालकियों में बैठे राजपूत खिलजी के सैनिकों पर टूट पड़े। राजपूतों के इस अचानक हमले से खिलजी की सेना हक्की-बक्की रहा गई वो कुछ समझ आती उससे पहले ही राजपूतों ने रतनसिंह को सुरक्षित अपने दुर्ग पंहुचा दिया , हर तरफ कोहराम मच गया था गोरा और बादल काल की तरह दुश्मनों पर टूट पड़े थे , और अंत में दोनों वीरो की भांति लड़ते हुवे वीरगति को प्राप्त हुवे |

गोरा और बादल जैसे वीरों के कारण ही आज हमारा इतिहास गर्व से अभिभूत है. ऐसे वीर जिनके बलिदान पर हमारा सीना चौड़ा हो जाये, उन्हें कोटि-कोटि नमन | मेवाड़ के इतिहास में दोनों वीरों की वीरता स्वर्ण अक्षरों में अंकित है |

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