राणा सांगा : वीर योद्धा जो जीवन भर हिंदुत्व की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे और विदेशी लुटेरों से भारत की रक्षा की
भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक वीर योद्धा हुवे हे जिन्होंने अपनी वीरता और युद्ध कौशल से इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया , मित्रों अगर हम भारत के इतिहास की जानकारी ले और राजस्थान का नाम ना आये ऐसा नहीं हो सकता हे,
क्योकि राजस्थान को वीरो की भूमि कहाँ जाता हे , यहाँ पर “सर कटना और धड़ लड़ना” ऐसे सैकड़ो उदाहरण भरे पड़े हे , आज हम आपको राजस्थान के प्रान्त “मेवाड़” के एक शूरवीर योद्धा की कथा सुनाने जा रहे हे जिन्होंने अपनी वीरता और शौर्य के बल पर दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे ,
उस महान वीर योद्धा का नाम हे संग्रामसिंह – “राणा सांगा”
राणा सांगा जीवन परिचय :
राणा सांगा का पूरा नाम महाराणा संग्रामसिंह था | उनका जन्म 12 अप्रैल, 1484 को मालवा, राजस्थान मे हुआ था. राणा सांगा सिसोदिया (सूर्यवंशी राजपूत) राजवंशी थे | राणा सांगा के पिता का नाम “राणा रायमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) ” था , राणा सांगा (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) को ‘संग्राम सिंह’ के नाम से भी जाना जाता है।
उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा और गुजरात के विरुद्ध अभियान किया।। राणा साँगा महान् योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में से ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं था, जो उससे लोहा ले सके।
राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा अपनी वीरता और उदारता के लिये प्रसिद्ध हुये। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। इनके शासनकाल मे मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की।
(शासनकाल 1509 से 1528 ई.) राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आँख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया, वे अपने समय के महानतम विजेता तथा “हिन्दूपति” के नाम से विख्यात थे। वे भारत में हिन्दू-साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे।
राणा सांगा जीवन संघर्ष और वीरता :
राणा रायमल के बाद सन 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की।
उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। इनके शासनकाल मे मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की। राणा सांगा ने दिल्ली और मालवा के नरेशों के साथ अठारह युद्ध किये। इनमे से दो युद्ध दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान इब्राहीम लोदी के साथ लड़े गए।
कहा जाता था कि मालवा के सुल्तान मुजफ्फर खान को युद्ध में कोई गिरफ्तार नहीं कर सकता था क्योंकि उसकी राजधानी ऐसी मजबूत थी कि वह दुर्भेद्य थी। परन्तु पराक्रमी राणा सांगा ने केवल उसके दुर्ग पर ही अधिकार न किया किन्तु सुल्तान मुजफ्फर खान को बंदी बनाकर मेवाड़ ले आया। फिर उसने सेनापति अली से रणथम्भोर के सुदृढ़ दुर्ग को छीन लिया।
देख खानवा यहाँ चढ़ी थी राजपूत की त्यौरियाँ ।
मतवालों की शमसीरों से निकली थी चिनगारियाँ ।
‘खानवा की लड़ाई’ (1527)
में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। इतिहासकारों के अनुसार साँगा की सेना में 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे।
लेकिन बाबर की सेना भी बहुत विशाल थी और बाबर की सेना में तौपे भी थी । कई दिनों तक चले इस भीषण युद्ध में सांगा की विजय हुई और बाबर को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा, इस युद्ध में राणा सांगा हाथी पर बैठकर युद्ध कर रहे थे।
तभी एक तीर राणा सांगा को आकर लगा , तीर लगने से सांगा मुर्छित हो गए , मुर्छित राणा सांगा के छत्र-चवर झाला अज्जा जी ने धारण कर लिए और स्वं हाथी पर बैठकर युद्ध करने लगे इससे राणा सांगा को युद्ध भूमि से सुरंक्षित निकाला जा सका |