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परमार वंश का इतिहास | अग्निवंशी क्षत्रियों की शाखा परमार,पंवार राजपूतों के विषय में जुडी 10 रोचक ऐतिहासिक जानकारियाँ

By Jogendra Singh

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परमार वंश का इतिहास | जय माँ भवानी हुकुम, हमने अपनी पोस्ट  में पिछले कुछ समय से आपको राजपूत समाज से जुडे वंशों के बिषय में आपको बता रहे थे ।

आज हम उसी विषय को आगे बढ़ते हुए एक और राजपूत वंश के विषय में आपके साथ विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे। जी हाँ हुकुम, आज हम बात करने जा रहै हैं परमार वंश के विषय राजपूत समाज के इस वंश का भी इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है जिसके बारे में हमें और आपको जानने की अत्यंत आवश्यकता  है। 

भारत में राजस्थान के साथ साथ अन्य राज्यों में भी काफी अच्छी संख्या है।आज के इस पोस्ट में हम परमार वंश के इतिहास से जुड़े प्रत्येक पहलू पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे तथा आपको परमार वंश के महापुरुषों की गौरवगाथा भी सुनाएंगे..

परमार वंश का इतिहास | Parmar Vansh History

क्षत्रिय परमार वंश का इतिहास से जुड़ी रोचक और इतिहास की बातें इस प्रकार हे :- 

(1). परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था। ये 9वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। परमार वंश का आरम्भ नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ती) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज द्वारा हुआ था। इस वंश के शासकों ने 800 से 1327 ई. तक शासन किया। मालवा के परमार वंशी शासक सम्भवतः राष्ट्रकूटों या फिर प्रतिहारों के समान थे।

(2). परमार या पंवार वंश के राजपूत अग्निवंशी राजपूत हैं। परमार वंश के राजपूतों का इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है यह अपने सफल नेतृत्व और युद्धभूमि में वीरता का परिचय देने वाले के तौर पर जाने जाते हैं।

(3). परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।

(4). परमार (पँवार) एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारंभिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक ‘नवसाहसांकचरित’ में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये आबू पर्वत के अग्निकुंड से एक वीर पुरुष का निर्माण किया जिनके पूर्वज सुर्यवंशी क्षत्रिय थे। इस वीर पुरुष का नाम परमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा।

(5).जैसा कि हमने आपको पहले भी बताया कि परमार वंश के क्षत्रिय अपने कुशल नेतृत्व के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने लगभग 500 वर्षों से अधिक की एक लंबी अवधि  तक अपने साम्राज्य का कुशल नेतृत्व किया जिसके लिए उन्हें कई बार रणभूमि में अपनी वीरता दिखानी पड़ी और अपने साम्राज्य की रक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान भी देना पड़ा ।

परमार वंश का इतिहास एवं प्रतिक चिन्ह

(6). परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन में थी पर कालान्तर में राजधानी ‘धार’, मध्यप्रदेश में स्थानान्तरित कर ली गई।  इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं प्रतापी राजा ‘सीयक अथवा श्रीहर्ष’ था। उसने अपने वंश को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कराया। परमार वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ वाक्पति मुंज (973 से 995 ई.) और आठवाँ मुंज का भतीजा भोज (1018 से 1060 ई.) सबसे प्रतापी था | 

(7).  मुंज अनेक वर्षों तक कल्याणी के चालुक्य राजाओं से युद्ध करता रहा और 995 ई. में युद्ध में ही मारा गया। उसका उत्तराधिकारी भोज (1018-1060 ई.) गुजरात तथा चेदि के राजाओं की संयुक्त सेनाओं के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही परमार वंश का प्रताप नष्ट हो गया। यद्यपि स्थानीय राजाओं के रूप में परमार राजा तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य करते रहे, अंत में तोमरों ने उनका उच्छेद कर दिया।  इस वंश के प्रारम्भिक शासक उपेन्द्र, वैरसिंह प्रथम, सीयक प्रथम, वाक्पति प्रथम एवं वैरसिंह द्वितीय थे।

(8). चक्रवर्ती महाराजा भोजदेव परमार  एक महान सम्राट के साथ साथ एक कुशल लेखक और एक विद्वान पुरुष  के तौर पर जाना जाता है । महाराजा भोज ने एक लंबे समय 50 वर्ष से अधिक समय तक अपने क्षेत्र बेहद ही कुशल नेतृत्व किया और काफी युद्ध भी लड़े। उनके दरवार में हमेशा लेखकों और विद्वानों को उच्च स्थान मिला अन्य लोगों के साथ मिलकर उन्होंने अपने लेखन कौशल को हमेशा संवारा इसके साथ साथ उन्होंने धर्म के प्रचार में भी काफी रुचि दिखाई और एक बड़े स्तर पर भव्य मंदिरों का निर्माण कराया।

(9). चक्रवर्ती सम्राट महाराजा विक्रमादित्य का नाम कौन नही जानता वो परमार वंश के ही एक शासक थे। उनकी महानता के बारे में जानने के लिए बस इतना ही काफी है कि विक्रम संवत उन्ही ले नाम पर शुरू हुआ है। वो एक कुशल शासक के साथ साथ एक उदार व्यक्ति भी थे पूजा पाठ में भी उनकी काफी रुचि थी। वो महान पराक्रमी थे उन्होंने कई बार अपने शीश अपनी कुलदेवी को अर्पण कर दिए थे। वो हमेशा से ही अपनी उदारसीलता और त्याग के लिए जाने जाते थे। इसके साथ साथ उन्होंने अपने तप के बल पर कई अद्भुत शक्तियों भी प्राप्त कर लीं थीं।

(10). परमार वंश की कुलदेवी का नाम सच्चियाय माता जी हैं। परमार वंश का गोत्र वशिष्ठ एवं इष्टदेव सूर्यदेव महाराज हैं परमार वंश का प्रमुख वेद यर्जुवेद है।

नोट – परमार/पंवार वंश की ऐतिहासिक जानकारी काफी विस्तृत है हमने अपने इस पोस्ट में मुख्य पहलुओं पर ही जानकारी दी है।फिर भी कोई महत्वपूर्ण जानकारी छूट गयी है तो हम उसके लिए क्षमाप्रार्थी हैं।

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